समस्याओं को सुलझाने के लिए एन.एल.पी. का परिप्रेक्ष्य ?
एक दिन टीचर बच्चों की ड्राइंग बुक देख रही थी, तो देखा कि एक लड़का सारे चित्र काले रंग से पेंट करता है । उसे बड़ा अजीब लगा, टीचर को उस बच्चे के चेहरे पर अजीब सी मायुसी दिखाई दी । उसने स्कूल के साइकोलोजिस्ट से बात की । साइकोलोजिस्ट ने बच्चे का इंटरव्यू लिया और यह ढूंढने की कोशिश की कि बच्चा इतना मायूस, उदास और नकारात्मक क्यों है? क्यों बच्चा सारे चित्र काले रंग से पेंट करता है?
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बच्चे के माता पिता को बुलाया गया और यह ढूंढने कि कोशिश हुई कि क्या बच्चे के अतीत में कुछ नकारात्मक घटनाएँ हुई हैं? काफी देर की खोजबीन और बातचीत से अंत में यह पता चला कि बच्चा किसी भी मानसिक बीमारी से ग्रस्त नहीं है, जिसकी वजह से वह सारे चित्र काले रंग से पेंट करता है किन्तु बच्चे के पास सिर्फ काला रंग है, जिसके कारण, वह सारे चित्रों को काले रंग से पेंट कर रहा है ।
अब तक साइकोलॉजी की दुनिया समस्याओं को सुलझाने के लिए इस तरीके से ही काम करती थी । समस्या कहीं और होती थी और साइकोलोजिस्ट कहीं और ढूंढते थे ।
समस्याओं को सुलझाने के लिए ज्यादातर साइकोलोजिस्ट दो सवाल पूछते थे ।
१. क्या गलत हुआ? २. क्यों हुआ?
मुझे लगता है, अगर इन दोनों सवालों के जवाब मिल भी जाए, तो भी कई बार समस्या हल नहीं होती ।
सिगमंड फ्रायड ने साइकोलॉजी के जगत में समस्याओं को सुलझाने का एक दृष्टिकोण प्रचलित किया और पिछले सौ वर्षों से इसी दृष्टिकोण पर आधारित अलग-अलग थेरेपीज निर्मित हुई । समस्याओं को सुलझाने के इस दृष्टिकोण के मूल में विचार था कि जैसे ही हम ‘समस्या क्या है और क्यों बन रही है’ समझ लेते हैं, समस्या को सुलझाना आसान हो जाता है । दुर्भाग्य से यह कल्पना कितनी भी अच्छी लगे किन्तु उससे परिवर्तन ना के बराबर होता है । समस्या को समझने से समस्या दूर नहीं होती, यह समझने के लिए हमें सौ वर्ष इंतजार करना पड़ा ।
उदाहरण के लिए अगर कोई इंसान स्मोकिंग करता है, तो उसे पता होता है कि स्मोकिंग उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है (क्या गलत हुआ) और अगर उसे यह भी पता चल जाए कि उसने स्मोक करना क्यों शुरू किया (क्यों हुआ) जैसे कि उसको दोस्तों के सामने ‘कूल’ दिखना था यानी उसे दोनों सवालों के जवाब मिल गये, (क्या गलत हुआ? क्यों हुआ?) दोनों सवालों के जवाब मिलने के बाद भी शायद उसके लिए स्मोकिंग से निजात पाना लगभग असंभव बना रहेगा, क्योंकि इस दुनिया में कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास दोनों सवालों के जवाब हैं (१. क्या गलत हुआ? २. क्यों हुआ?) फिर भी समस्या जस की तस बनी हुई है ।
इसलिए एन.एल.पी. ने एक नया रास्ता चुना, ‘क्या गलत हुआ और क्यों हुआ?’ इसकी जगह पर ‘क्या काम कर रहा है?’, यह ढूंढना शुरू किया । साइकोलॉजी में आज भी जो व्यक्ति निराशा से ग्रसित है, उसका अभ्यास होता है और एन.एल.पी. ऐसे व्यक्तियों का अभ्यास करता है, जो निराशा से बाहर आए है । यही वह कारण है, जिससे रूढ़िवादी साइकोलॉजी से एन.एल.पी. बेहतर परिणाम निर्मित कर सकता है ।
जैसे कि एन.एल.पी. के शुरुवाती दौर में अति भय या फोबिया से ग्रसित १०० से ज्यादा लोगों पर अभ्यास किया गया, जो कुछ समय बाद फोबिया से सफलतापूर्वक बाहर आए थे । इन लोगों के अभ्यास के बाद यह ढूंढा गया कि जो लोग फोबिया से बाहर आए हैं, इन सब में कॉमन क्या है? उस समानता के धागे को पकड़कर उससे एक प्रक्रिया बनायी गयी, बाद में इस प्रक्रिया की मदद से हजारों लोगों का फोबिया कुछ ही पलों में दूर हो सका ।
इसीलिए एन.एल.पी. में हम कुछ अलग सवाल पूछते हैं, जैसे कि ...
किस प्रकार से क्लाइंट समस्या का अनुभव कर रहा है?
दिमागी तौर पर यह एक्टिविटी किस प्रकार से हो रही है?
हर बार जब भी समस्या निर्मित होती है, तब एग्जैक्टली क्या होता है? क्या उसमें कोई समानता है?
किस प्रकार से क्लाइंट दिमागी तौर पर समस्या को सुलझा सकता है?
जब समस्या निर्मित होती है, तब दिमागी तौर पर कौन से कदम उठाएँ जाते हैं?
ऐसा क्या है, जिसने वर्षों तक क्लाइंट की समस्या को बनाये रखा?
अब जरा इन सवालों पर गौर किजिए । -
इन सवालों से हम क्या जानना चाह रहे हैं? इस तरह के सवाल पूछ कर हम क्या ढूंढ रहे हैं? इन सवालों से किस तरह से हम समाधान की तरफ आगे बढ़ेंगे?
असल में इस तरह के सवाल पूछ कर हम यह जानना चाह रहे हैं कि जब समस्या निर्मित होती है, तब क्लाइंट अपने दिमाग में एग्जैक्टली करता क्या है? क्योंकि जैसे ही हमें यह पता चलेगा कि उस समस्या का दिमागी स्ट्रक्चर क्या है, हम झट से उस स्ट्रक्चर को बदल सकते हैं । उस पूराने दिमागी स्ट्रक्चर की जगह पर हम नया स्ट्रक्चर ला सकते हैं, जिससे क्लाइंट नए तरीके से विचार करे और ये नए विचार नये व्यवहार को निर्मित कर सके ।
एन.एल.पी. में हम यह मानते हैं कि अगर हम लोगों को एक अलग तरीके से सोचना सिखाएँ और वह भी सक्रिय रुप से तो हम लोगों के जीवन में पल भर में परिवर्तन ला सकते हैं । अगर कोई इंसान खुद को मोटिवेट करते समय, यह सोचने लगे कि खुद को मोटिवेट करना बेहद कठिन है, तो यकीन मानिये यह बेहद कठिन हो जाएगा । अगर उसे खुद को मोटिवेट करना है, तो सबसे पहले उसको अलग तरह से सोचना होगा, उसकी पूरानी सोच उसके मोटिवेशन में सबसे बड़ी बाधा बनेगी । जैसे ही हमें यह समझ में आता है कि लोग किस प्रकार से सोचते हैं, तब उन्हें यह भी सिखाया जा सकता है कि कैसे नए तरीके से सोचा जा सकता है ।
उदाहरण के लिए जो लोग भयभीत होते हैं, उनके दिमाग में एक प्रक्रिया होती है, अगर उस प्रक्रिया के बदले कोई नयी प्रक्रिया होने लगे तो भयभीत होना भी लगभग असंभव हो जाएगा । इस प्रकार से एन.एल.पी. में हम दिमागी स्तर पर सोच को कैसे बदला जाए, इसके कुछ ठोस और बुनियादी टूल्स् सीखते हैं । जब आप अलग तरीके से सोचना शुरु करते हैं, तब आप कुछ नयी चीजें करते हैं और आप अलग महसूस करने लगते हैं ।
याद रखिये, ‘समस्या के तह तक जाने से या समस्या क्यों पैदा हुई है, यह जानने से समस्या तिरोहित हो जाएगी’, यह कल्पना कितनी ही बेहतर लगे, भले ही सौ वर्षों से साइकोलॉजी इसका इस्तेमाल कर रही है, फिर भी यह आईडिया व्यवहारिक नहीं है । एन.एल.पी. ने जो टूल्स् और तकनीक ढूंढी है, वे व्यवहारिक है और उनकी मदद से जीवन के रूपांतरण बड़ी ही आसानी से और जल्दी हो सकता है । भले ही वे टूल्स् और तकनीक रूढ़िवादी साइकोलॉजी से बहुत ज्यादा अलग क्यों ना रहे ।
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Mranal Gupta
NLP Master Trainer, Clinical Hypnotherapist, Director of IBHNLP
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Summary:
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