हम वास्तविकता किसे कहेंगे? पार्ट १
२०१७ में एपिक गेम्स नामक कंपनी ने माइक्रोसॉफ्ट विंडोज के लिए वर्चुअल रियालिटी (आभासी वास्तविकता) की संकल्पना पर आधारित एक गेम तैयार किया । उस वर्ष का यह सबसे बेहतरीन गेम था । यूरोप का युवा इस गेम का दीवाना था । ‘गेम इनफॉर्मर मैगजीन’ ने इस गेम को उस वर्ष का ‘सबसे बेहतरीन वर्चुअल रियलिटी गेम’ का अवॉर्ड दिया । इस बेहतरीन और लोकप्रिय गेम का नाम था, ‘रोबो रिकॉल’ ।
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वर्चुअल रियलिटी में कंप्यूटर टेक्नोलॉजी के माध्यम से यूजर के लिए आभासी दुनिया निर्मित की जाती है । यूजर को आभास होता है कि वह उसी आभासी दुनिया में जी रहा है, जिसे वर्चुअल रियलिटी के आधार पर बनाये गये गेम्स निर्मित करते हैं । वर्चुअल रियालिटी में यूजर सिर्फ स्क्रीन को ही नहीं देखता, बल्कि महसूस करता है उस आभासी दुनिया को, जिसका वह हिस्सा बना है ।
‘रोबो रिकॉल’ ने एक आभासी दुनिया निर्मित की थी, जिस में गेम खेलने वाला प्लेयर उस खेल का, उस आभासी दुनिया का, हिस्सा बन जाता था । इस खेल को खेलने के लिए प्लेयर के पास सिर्फ ‘वर्चुअल रियालिटी (व्हीआर) हेडसेट’ होना जरूरी था । जैसे ही ‘व्हीआर हेडसेट’ को पहनकर गेम शुरू होता था, उस गेम को खेलने वाला प्लेयर, एजेंट-३४ बन जाता, इस तरह एक नयी आभासी वास्तविकता निर्मित होती थी ।
इस गेम में प्लेयर के लिए एक मिशन तय किया जाता था । इंसानों के खिलाफ रोबोट इकट्ठा होते थे एवं प्लेयर को रोबोट्स को हराने का लक्ष्य दिया जाता था । गेम को इस तरीके से बनाया गया था कि खेलने वाला उस आभासी दुनिया का हिस्सा बन जाए । यह गेम इतना वास्तविक प्रतीत होता था कि लोग घंटों इस गेम को खेलते थे । वर्चुअल रियलिटी से निर्मित उस दुनिया का हिस्सा बन जाते थे ।
शुरू शुरू में वर्चुअल रियलिटी पर आधारित गेम्स मनोरंजन के लिए बनाये गये थे । धीरे-धीरे यह एक फलता फूलता बिजनेस बनने लगा । इस बिजनेस का एक ही लक्ष्य था, खेलने वाले को गेम की लत लगाई जाए और वह उस खेल का एडिक्ट हो जाए । इस तरह के गेम्स बनानेवाली कंपनियों ने इस लक्ष्य को जल्द ही हासिल कर लिया । ज़िन्दगी में आने वाली समस्याओं से छूटकारा पाने के लिए, ज़िन्दगी की वास्तविकता भूलने के लिए और आभासी जगत का हीरो बनने के लिए, पूरी दुनिया में इस तरह के गेम्स खेले जाने लगे ।
हम वर्चुअल रियालिटी (आभासी वास्तविकता) और वास्तविकता में फर्क कर सकते हैं क्योंकि आभासी वास्तविकता और हम अलग हैं, हमें यह समझ में आता है । आभासी वास्तविकता के लिए हमें उस गेम को खेलना पड़ता है, उस वी आर हेड सेट को पहनना पड़ता है और उस सॉफ्टवेयर को या गेम को खरीदना भी पड़ता है । इससे हमें यह आसानी से समझ में आता है कि अब हम वास्तविकता से आभासी वास्तविकता में जा रहे हैं । हमारी वास्तविक दुनिया, जहाँ पर हम अपनी ज़िन्दगी बिताते हैं और आभासी दुनिया अलग है ।
अब सवाल यह है कि जिसे हम वास्तविकता या हमारी वास्तविक दुनिया कहते हैं, क्या वह सही में वास्तविक है? क्या हम जिसे वास्तविकता कहते हैं, वह एक वर्चुअल रियलिटी तो नहीं है, जिसे हम ने अपने लिए बनाया है? जिसे हम हमारी वास्तविक दुनिया कहते हैं, क्या वह भी एक आभासी दुनिया ही तो नहीं है? संक्षेप में, जिसे हम वास्तविकता कहते हैं, वह सही मायने में कितनी वास्तविक है?
एक उदाहरण से समझाता हूँ । तितलियों की एक प्रजाति है, जिसे ‘पेंटेड लेडी’ के नाम से पहचाना जाता है । यह तितली सूंघने के लिए अपने एंटीना का प्रयोग करती है । खाने का स्वाद लेने के लिए, उसके पैरों का इस्तेमाल करती है । सुनने के लिए, पंखों का इस्तेमाल करती है । उसकी आँखों में ३०,००० से ज्यादा लेन्सेस हैं और ये लेन्सेस कैलिडोस्कोप की तरह काम करते हैं ।
जिस तरह से यह तितली इस दुनिया को अनुभव करती है, उसका अनुभव हमारे इस दुनिया के अनुभव से पूरी तरह से अलग हो सकता है । इस तितली की वास्तविकता और हमारी वास्तविकता पूरी तरीके से अलग है । तो अब सवाल यह है कि वास्तविकता को हम वास्तविकता कहेंगे?
आपको पता ही होगा कि उल्लू रात में देख पाते हैं । उनकी आँखें पूरी तरह से गोल होती हैं जैसे कि कोई दूरबीन । उनकी आँखें ऐसी होती हैं जैसे कि कोई इंफ्रारेड कैमरा । उल्लू जिस तरह से इस दुनिया को अनुभव कर रहे हैं, उनका अनुभव हमारे अनुभव से पूरी तरीके से अलग है । इस दुनिया के संदर्भ में उल्लू की वास्तविकता और हमारी वास्तविकता में जमीन आसमान का फर्क हो सकता है, अतः अब सवाल यह है कि किस की वास्तविकता को हम वास्तविकता कहेंगे?
संक्षेप में, इस दुनिया का जो अनुभव तितली को हो रहा है, उल्लू को हो रहा है और मनुष्य को हो रहा है, वह अनुभव एक दूसरे से पूरी तरह से जुदा है, इसलिए तितली की वास्तविकता, उल्लू की वास्तविकता से पूरी तरह से अलग है और उल्लू की वास्तविकता, मनुष्यों की वास्तविकता से पूरी तरह से अलग हो सकती है ।
इसका एक अर्थ यह हुआ कि यहाँ पर कोई निश्चित वास्तविकता नहीं है, हमारे सेंसेस (सूंघना, देखना, स्पर्श करना, स्वाद लेना और सुनना - मनुष्य के संदर्भ में) जैसे हैं, उसी तरह की वास्तविकता हम निर्मित करते हैं, इसलिए उल्लू इस दुनिया में वो देख पाएगा और अनुभव कर पाएगा, जो शायद हम कभी नहीं कर पाएंगे । तितली इस दुनिया में जिस तरह से फूलों की गंध का अनुभव ले पाएगी, शायद उस अनुभव को हम कभी समझ नहीं पाएंगे ।
संक्षेप में, हमारे सेंसेस हमारी वास्तविकता को निर्मित करते हैं, इसलिए जिस वास्तविकता का अनुभव हमारे सेंसेस पर निर्भर है, क्या हम उसे वास्तविकता कह पाएंगे? इसका मतलब यह हुआ, कि जिसे हम वास्तविकता कहते हैं, वह भी एक तरह की आभासी वास्तविकता है, क्योंकि वह सेंसेस के अनुसार बदल रही है । जिसके सेंसेस जितने शार्प होंगे उसे उसी तरह की वास्तविकता का अनुभव होगा ।
वैज्ञानिक कहते हैं कि कुछ कीड़े ऐसे होते हैं, जिन्हें आँखों पर रोशनी पडने के बाद, उसे मस्तिष्क में रजिस्टर करने के लिए ५ सेकंड लगते हैं । अब मान लीजिए कि आप उस कीड़े के सामने खड़े हैं । आप उसके सामने खड़े हैं, यह बिम्ब उसके दिमाग में रजिस्टर होने के लिए ५ सेकंड लगेंगे । अब वह कीड़ा आपको देख रहा है और अगले ५ सेकंड के भीतर आप बाहर जाकर फिर से अंदर आते हैं, तो उस कीड़े को यह कभी पता नहीं चलेगा कि आप बाहर जाकर फिर अंदर आये हैं, क्योंकि उसने आपकी एक फ्रेम अपने दिमाग में बना ली जिसके लिए उसे ५ सेकंड लगे अब आप की दूसरी फ्रेम बनाने के लिए भी उसे अगले ५ सेकंड लगेंगे । अगर उस ५ सेकंड में आप बाहर जाकर फिर से अंदर आ गये, तो उस कीड़े के लिए वास्तविकता यह होगी कि आप उसके सामने ही खड़े हैं ।
तो फिर वास्तविकता क्या है, आप बाहर जाकर अंदर आए यह वास्तविकता है या उस कीडे के नजरिये से आप वहाँ से बाहर गये ही नहीं यह वास्तविकता है?
अब आप ही सोचिये, हम वास्तविकता किसे कहेंगे? क्या हम भी किसी वर्चुअल रियलिटी में नहीं जी रहे हैं? हम जिसे वास्तविकता कहते हैं, उसमें कितनी वास्तविकता है?
इस विषय पर अगले ब्लॉग में विस्तार से चर्चा करेंगे ।
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एन्जॉय योर लाइफ एंड लिव विथ पैशन !
Sandip Shirsat
Creator of MBNLP, Founder & CEO of IBHNLP
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Summary:
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